Mgsubikaner: BA second Semester राजनीति विज्ञान- दादा भाई नारोजी नोट्स

 दादाभाई नौरोजी

 परिचय- 



➢ दादाभाई नौरोजी का जन्म बम्बई के एक धार्मिक पारसी परिवार में 4 सितम्बर, 1825 को हुआ था, जब इनकी आयु 10 वर्ष की थी, इनके पिता का देहान्त हो गया, इनकी माता ने इन्हें शिक्षा व्यवस्था करवाई  
➢ वर्ष 1850 में दादाभाई एल्फिन्स्टन कॉलेज में अंकगणित और प्राकृतिक विज्ञान के अध्यापक नियुक्त होने वाले प्रथम भारतीय बने, 1853 में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ बम्बई एसोसिएशन की स्थापना की, 1856 में इन्होने कॉलेज की नौकरी से त्यागपत्र देकर एक पारसी कम्पनी ‘ केमा एण्ड सन्स ‘ की देखभाल के लिए इंग्लैण्ड चले गए 
➢ वर्ष 1867 में इन्होने लन्दन में ‘ ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन ‘ की स्थापना की, 1869 में इसकी एक शाखा बम्बई में स्थापित की, दादाभाई ने ब्रिटेन को अपने राजनीतिक जीवन का कार्यक्षेत्र बनाया  
➢ वर्ष 1892 में केन्द्रीय फिसम्बरी से चुनाव लड़कर ब्रिटिश लोक सदन कॉमन सभा के सदस्य बने, किसी भारतीय के लिए ब्रिटिश संसद का सदस्य निर्वाचित होना उस समय की एक महान घटना थी 
➢ वर्ष 1897 में उन्हें भारतीय वित व्यय सम्बन्धी वेल्वी कमिशन के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया, उन्होंने कमिशन के सामने भारत के धन को बुरी तरह खर्च करने पर दुःख प्रकट किया 
➢ दादाभाई कांग्रेस के संस्थापकों में से थे और वे अपने जीवनकाल में तीन बार कांग्रेस के सभापति रहे, 1886, 1893 और 1906 में, 30 जून,1917 को बम्बई में उनकी मृत्यु हो गयी 

रचनाएं-

➢ 1. पावर्टी एण्ड अन-ब्रिटिश रूल इन इण्डिया- 1901  
➢ 2. पावर्टी इन इण्डिया- 1876 

 अ. दादाभाई के आर्थिक विचार- 



➢ दादाभाई ने भारतीय राष्ट्रवाद के आर्थिक आधारों के सिद्धांतों का निर्माण किया, भारतीय दरिद्रता और गरीबी का सही चित्रण कर उन्होंने जनता की आंखे खोल दी, इन्होने अपनी पुस्तक पावर्टी इन इण्डिया में बताया कि भारत के लोगों की आय बहुत कम है, प्रति व्यक्ति वार्षिक आय मात्र 20 रू. और अपनी दूसरी पुस्तक पावर्टी एण्ड अन-ब्रिटिश रूल इन इण्डिया में भारत की आर्थिक दशा का विश्लेषण तथा राजनीतिक परिस्थितियों का तार्किक विवेचन प्रस्तुत किया 

1. ब्रिटिश शासन की अप्राकृतिक वितीय तथा आर्थिक नीति-

➢ दादाभाई ने ब्रिटिश शासकों की अप्राकृतिक वितीय तथा आर्थिक नीति पर खेद प्रकट किया, अंग्रेजों की नीतियों के कारण से देश पर ऋण का बोझ बढ़ रहा है, अंग्रेजो ने भारत और इंग्लैण्ड के शासन के लिए दोनों ही स्थानों पर भारी-भरकम प्रशासकीय ढांचे का निर्माण किया था, उस ढांचे का व्यय भी भारत पर भारी आर्थिक बोझ था 
➢ दादाभाई चाहते थे कि भारत की आर्थिक समृद्धि के लिए देश के साधनों के इस विनाशकारी निर्गम को रोका जाए  

2. भारत से धन का निर्गम-



➢ दादाभाई ने भारतीय वित की विभिन्न समस्याओं पर अपनी साख्यिकी पद्धति से विचार किया और समस्याओं का मूल कारण जानने के लिए वैज्ञानिक विश्लेषण किया 
➢ भारत की दरिद्रता की व्याख्या उस समय अंग्रेज अर्थशास्त्रियों ने दूसरे ढंग से की थी, उन्होंने यह बताया कि भारत में गरीबी अर्थशास्त्र के सामान्य नियमों के आधार पर बढ़ती जा रही है, उन्होंने कहा कि भारत पर गरीबी ऊपर से थोपी नहीं जा रही है बल्कि भारत की बढ़ती हुयी जनसंख्या इसके लिए उतरदायी है 
➢ दादाभाई ने तर्क दिया कि- ब्रिटेन द्वारा स्थापित शान्ति से जनसंख्या में वृद्धि हुयी है, किन्तु ब्रिटेन द्वारा देश के धन की लूट से जो विनाश हुआ है उसे वे भूल जाते है, भारत का विनाश आर्थिक नियमों के निर्दयतापूर्वक कार्य करने के कारण नहीं हो रहा है, उसके विनाश का मुख्य कारण ब्रिटेन की क्रूर और विचारशून्य नीतियां है
➢ भारत के साधनों का भारत में ही निर्दयतापूर्वक अपव्यय किया जाता है और इसके अतिरिक्त उन साधनों को निर्दयतापूर्वक लूटखसोटकर इंग्लैण्ड ले जाया जा रहा है 
➢ दादाभाई ने आंकड़ों के साथ यह सिद्ध किया कि भारत की गरीबी का मुख्य कारण भारत से इंग्लैण्ड जाने वाली भारी धनराशि है, इंग्लैण्ड प्रति वर्ष लगभग 3 से 6 करोड़ पौण्ड की दर से भारत के साधनों की लूट कर रहा है, उनका कहना था की सुदूर इंग्लैण्ड से भारत का शासन बहुत खर्चीला पड़ रहा है और उसके परिणामस्वरूप देश की बहुत अवनति हुयी है, आर्थिक साधनों के निर्गम से देश में पूंजी का संचय नहीं हो पाता और देश की दरिद्रता निरन्तर बढ़ती जा रही है 
➢ उन्होंने अपने निर्गम सिद्धान्त में उन विभिन्न मदों को स्पष्ट रूप से गिनाया जिनके रूप में देश से भारी-भरकम रकम का निष्कासन हो रहा था-
➢ 1. ब्रिटिश अधिकारियों की पेंशन 2. युद्ध कार्यालय का भुगतान 3. भारत में ब्रिटिश सेना का खर्च 4. भारत सरकार के इंग्लैण्ड में खर्चे 5. भारत में स्थित ब्रिटिश व्यावसायिक वर्गों द्वारा अपनी कमाई में से स्वदेश भेजी गयी राशि 
➢ चूंकि इस निर्गम के कारण भारत में पूंजी का संचय नहीं हो पाता, इसलिए जिस धन को अंग्रेज लोग यहां से खसोटकर ले जाते है उसे पूंजी के रूप में भारत में वापस ले आते है और इस प्रकार व्यापार तथा प्रमुख उद्योगों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते है और इसके द्वारा वे भारत का और अधिक शोषण करते है और अधिक धन देश से बाहर ले जाते है 
➢ इसके साथ ही उन्होंने भारत के नैतिक निर्गम के बारे में दुःख प्रकट किया, अंग्रेजों द्वारा भारत में शासन के सभी विभागों में उच्च पदों पर आसीन रहने के कारण भारतीयों में हीनता की भावना का संचार होना स्वाभाविक था 
➢ यूरोपवासी भारत की सेवा में नियुक्त होकर धन अर्जित करने का कार्य करते, अनुभव और बुद्धि का अर्जन करते, सेवानिवृत होकर धन और अनुभव के साथ स्वदेश लौट जाते, इस प्रकार भारत को आर्थिक और नैतिक दोनों प्रकार की सम्पति से रहित होना पड़ता 

ब. सामाजिक विचार-



➢ समाज सुधार कार्यक्रमों में दादाभाई ज्यादा सक्रीय नहीं रह सके, इसके दो कारण थे- प्रथम- उन्होंने लंबे समय तक विदेश में प्रवास किया तथा द्वितीय- वे पारसी अल्पसंख्यक थे तथा इस कारण से उनके द्वारा किसी भी बहुसंख्यक समुदाय के धार्मिक तथा सामाजिक क्रियाकलाप में हस्तक्षेप करना अथवा उसमें सुधार सुझाना स्वीकार नहीं किया 
➢ फिर भी नारी शिक्षा पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा, उन्होंने धार्मिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और रूढ़िवादिताओं पर भी प्रहार किया, मद्यपान को उन्होंने एक बहुत बड़ी सामाजिक बुराई बताया, विधवा विवाह के प्रचार में उन्होंने विशेष रूचि ली, समाज सुधार हेतु उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं जैसे बम्बई एसोसिएशन, पारसी जमनेजियम आदि का संगठन किया 

 स. राजनीतिक विचार-

➢ अपने राजनीतिक विचारों के कारण दादाभाई की गणना उदारवादी चिंतकों में की जाती है, उन्हें ब्रिटिश न्यायप्रियता में विश्वास था, लेकिन जीवन के अन्तिम वर्षों वे ब्रिटिश शासन के प्रति कठोर हो गए  

1. राजनीतिक सता के नैतिक आधार का पोषण-

➢ दादाभाई ने राजनीतिक सता के नैतिक आधार पर जोर दिया और कहा कि न्याय, उदारता और मानवता की आधारशिलाओं में ही राजनीतिक व्यवस्था की एकता कायम रखी जा सकती है, कोई भी राजनीतिक व्यवस्था, यदि वह पाशविक बल पर आधारित है तो कभी दीर्घजीवी नहीं हो सकती, नागरिकों की इच्छाओं और आकांक्षाओं में तादात्म्य हो, तभी राजनीतिक व्यवस्था के चिरस्थायी होने की आशा की जा सकती है 

 2. ब्रिटिश चरित्र और न्यायप्रियता में विश्वाश-

➢ दादाभाई अंग्रेजों के विवेक और न्यायप्रियता में विश्वास करते थे, उनका विश्वास था कि अंग्रेजों के शासन के अन्तर्गत भारत का भविष्य सदैव उज्ज्वल रहेगा, उन्हें अंग्रेजों द्वारा भारत को सभ्य बनाए जाने वाले पुनीत कार्य में भी विश्वास था 
➢ दादाभाई का विश्वास था कि इंग्लैण्ड भारत के साथ किए गए अपने वायदों को ईमानदारी, सज्जनता और गरिमा के साथ पूरा करेगा, इस न्याय के लिए भारत और इंग्लैण्ड के मध्य मधुर सम्बन्धों की स्थापना की जानी चाहिए 

3. ब्रिटिश लोकमत को जाग्रत करने का प्रयत्न-



➢ दादाभाई की मान्यता थी कि भारतीय समस्याओं के बारे में ब्रिटिश लोकमत को जगाने की आवश्यकता है, उन्होंने यह अनुभव किया कि ब्रिटिश मित्रों के सहयोग के बिना न तो भारत के सम्बन्ध में इंग्लैण्ड में स्वस्थ लोकमत बनाया जा सकेगा और न ब्रिटिश संसद के सदस्य भारत में सुधारों की आवश्यकता समझ सकेंगे  
➢ इसी कारण दादाभाई ने व्योमेश चन्द्र बनर्जी आदि के सहयोग से ‘लन्दन इंडियन सोसायटी’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य अंग्रेजों और भारतीयों में सहयोग बढ़ाना था 
➢ ब्रिटिश लोकमत को भारतीय समस्याओं की जानकारी देते हुए दादाभाई ने भारत की शिकायतों की एक लंबी-चौड़ी सूची प्रस्तुत की- जैसे शिक्षा के मामले में उदासीनता, भारतीय प्रशासन में भारतीयों को उचित स्थान न देना, बार-बार अकाल पड़ना, सिंचाई और आवागमन के साधनों का अभाव आदि 

 4. उपनिवेशवाद की निरंकुशता पर प्रहार- 

➢ दादाभाई ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद की निरंकुशता की नैतिक बुराइयों का पर्दाफाश किया, उनके अनुसार निरंकुश शासन राजनीतिक शक्ति को धारण करने वालों की नैतिक संवेदन शक्ति को क्षीण और कुंठित करके उन्हें भ्रष्ट कर देता है, निरंकुश शासकों को उपनिवेशी जनता के साथ घमण्ड, अहंकार तथा अत्याचार से युक्त व्यवहार करने की आदत पड़ जाती है 

 5. समाजवादी आग्रह-

➢ दादाभाई के उदारवादी दृष्टिकोण के साथ ही उनके विचारों में समाजवादी आग्रहों को देखा जा सकता है, वर्ष 1905 में जब वो नेशनल डेमोक्रेटिक लीग में थे उन्होंने वृद्धावस्था पेंशन का प्रस्ताव रखा, श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने औद्योगिक आयुक्त की नियुक्ति की मांग की 
➢ दादाभाई ने साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था की आलोचना की, कि भारत के शोषण से प्राप्त लाभ भारतीय जनता की हित वृद्धि में न होकर कुछ पूंजीपतियों के हाथों में चला जाता है 

 6. संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण साधनों पर आग्रह-

➢ दादाभाई की पद्धति संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण थी, उनका विश्वास था कि संवैधानिक आन्दोलन की पद्धति के आधार पर ही भारतीय अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है, वे इस बात को समझते थे कि अंग्रेजों से लड़कर अथवा उनके प्रति हिंसक क्रान्ति और विद्रोह करके अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता तत्कालीन परिस्थितियों में प्राप्त नहीं की जा सकती 
➢ भारतीयों के लिए यही मार्ग श्रेयस्कर था कि वे संवैधानिक ढंग से सम्मिलित आवाज में अपनी मांगे ब्रिटिश शासन के सम्मुख रखें, ब्रिटिश जनता की नैतिकता और स्वाधीनताप्रियता को उकसाने और इस प्रकार धीरे-धीरे एक के बाद एक अपने हकों को प्राप्त करते जाएं 

 7. देशी रजवाड़ों के महत्व को स्वीकार करना-

➢ विदेशी शासन के विरुद्ध राजनीतिक युद्ध में दादाभाई ने देशी रियासतों के महत्व को भलीभांति समझा, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि देशी रजवाड़ों को भारतीय नेताओं ने अपने राजनीतिक आन्दोलन से अलग रखा तो वे एक अत्यंत उपयोगी शक्ति को नष्ट करने के जिम्मेदार होंगे 
➢ दादाभाई ने रजवाड़ों को सार्वजनिक कार्य के लिए वितीय सहायता देने का सुझाव दिया ताकि भारत अपने राजनीतिक संघर्ष में अधिक अच्छी तरह आगे कदम बढ़ा सके 

 8. स्वशासन और स्वराज्य की धारणा-

➢ अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भ में दादाभाई ने ब्रिटिश शासन को भारत में वरदान समझा था, उनका ब्रिटिश शासन की न्यायप्रियता में अटूट विश्वास था लेकिन 20 वीं शताब्दी के प्रथम दशक के प्रारम्भिक वर्षों से उनके विचारों में परिवर्तन आने लगा और अंग्रेजों के प्रति उनकी भाषा में अधिक कठोरता परिलक्षित होती गयी 
➢ 18 मार्च, 1904 को ‘भारत में कुशासन’ विषय पर दादाभाई ने एक प्रभावशाली भाषण दिया और इसके बाद ही स्वशासन की मांग की गयी, दादाभाई ने कहा वर्तमान अपमानजनक, दम्भी और विध्वंसात्मक शासन प्रणाली को सुधारने का एक ही तरीका है, ब्रिटिश सर्वोच्च सता के अधीन स्वशासन
➢ वर्ष 1906 में कलकता में कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर दादाभाई ने भारतीय जनता के तीन महत्वपूर्ण अधिकारों पर बल दिया- 1. उच्च लोकसेवाओं में भारतवासियों को अधिकाधिक संख्या में नियुक्त किया जाए 2. भारतीयों को अधिकाधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए जिससे वे स्थायी उपनिवेशों के नमूने पर अपने यहां भी विधान परिषदें स्थापित कर सके 3. ब्रिटेन तथा भारत के बीच न्याय एवं औचित्यपूर्ण आर्थिक सम्बन्ध हो 

मूल्यांकन-


➢ दादाभाई को भारत का पितामह कहा जाता है, स्वराज शब्द उन्ही से मिला, भारत की दरिद्रता का दर्शन दादाभाई ने ही कराया, उन्होंने भारतीय राजनीति की आर्थिक व्याख्या प्रस्तुत की, अर्थशास्त्रीय शोध के क्षेत्र में वैज्ञानिक वस्तुगत पद्धति का अनुसरण किया, राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने नैतिकता पर जोर दिया, स्वराज्य की प्राप्ति वे सद्भावना के आधार पर तथा वैधानिक ढंग से चाहते थे 

 

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