Mgsubikaner: BA second Semester राजनीति विज्ञान- गोपाल कृष्ण गोखले

 गोपाल कृष्ण गोखले

परिचय- 



➢ गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म सन 1866 में बम्बई प्रान्त के कोल्हापुर जिले में हुआ, पिता के देहान्त के बाद इन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए कठोर संघर्ष करना, 18 वर्ष की आयु में स्नातक और 20 वर्ष की आयु में पूना के अंग्रेजी स्कूल में अध्यापक हुए, जो विख्यात फर्ग्यूसन कॉलेज बना 
➢ महादेव गोविन्द रानाडे गोखले की बुद्धिमता और कर्तव्य-परायणता से बहुत प्रभावित थे और गोखले ने अपना सार्वजनिक जीवन जस्टिस रानाडे के शिष्य के रूप में प्रारम्भ किया 
➢ जस्टिस रानाडे ने गोखले को बम्बई प्रदेश की मुख्य राजनीतिक संस्था ‘ सार्वजनिक सभा’ का मंत्री बना दिया और शिघ्र ही वे प्रान्त के प्रमुख व्यक्तियों में गिने जाने लगे, वे इस संस्था के प्रमुख पत्र क्वार्टरली रिव्यू के सम्पादक भी नियुक्त किए गए, वे समाज सुधार से सम्बन्धित पत्रिका सुधारक के सम्पादक भी रहे 
➢ वर्ष 1905 के कांग्रेस के बनारस अधिवेशन के सबसे कम उम्र में वे अध्यक्ष बने, वर्ष 1897 में उन्होंने वैल्वी आयोग के सामने भारत का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, 1905 में ‘हाबहॉउस विकेंद्रीकरण आयोग’ के समक्ष अपने विचार रखे, 1 सितम्बर,1912 में नियुक्त शाही आयोग का उन्हें सदस्य नियुक्त किया गया  
➢ वर्ष 1912 में वे गांधी के निमंत्रण पर दक्षिण अफ्रीका गए और वहां भारतीय सत्याग्रहियों तथा दक्षिण अफ्रीका की सरकार के बीच समझौता कराने में सफलता मिली, गोखले को गांधी अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, गांधी इन्हें ‘पुण्यात्मा गोखले’ कहा करते थे 
➢ 19 फरवरी,1915 को 49 वर्ष की आयु में इनका देहान्त हो गया 

 1. गोखले के राजनीतिक विचार  

➢ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं के पास इतना समय नहीं था कि वे अपने विचारों को सुसंगठित रूप से व्यक्त कर सके, यही बात गोखले के सम्बन्ध में कही जा सकती है, उन्होंने सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय रहते हुए अपने राजनीतिक दृष्टिकोण के विभिन्न पक्षों को प्रतिपादित किया है, उनके राजनीतिक विचार इस प्रकार है 

 1. उदारवादी दृष्टिकोण-

➢ जब गोखले ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कदम रखा उस समय भारत में पश्चिमी उदारवादी विचारकों का प्रवेश हो चुका था, ये नेता उदारवादी मूल्यों के आधार पर देश के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक उद्धार की बात सोचने लगे, गोखले ने उदारवादी नेताओं की इन्ही परम्पराओं को आगे बढ़ाया 

 2. ब्रिटिश शासन के प्रति दृष्टिकोण-

➢ समस्त उदारवादी ब्रिटिश सता को भारत के लिए ईश्वरीय वरदान समझते थे, गोखले भी इस विचार के अपवाद नहीं थे 


➢ उनका मानना था कि अंग्रेजों के नियंत्रण में ही भारत में लोकतान्त्रिक परम्पराओं की स्थापना चाहते थे, वे संवैधानिक साधनों के माध्यम से ब्रिटिश सता का ध्यान आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं की ओर आकृष्ट किया जाए तो ब्रिटिश सरकार निश्चित ही भारत में आर्थिक, प्रशासनिक व राजनीतिक सुधारों को लागू करेगी जिससे भारतीय भविष्य में अपने भाग्य का निर्माण कर सकेंगे 

 3. राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार-



➢ गोखले उग्र राष्ट्रवादी नहीं थे, वे स्वीकार करते थे कि भारत अंग्रेजों के नियंत्रण में रहकर ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति कर सकेगा, अतः वे सम्पूर्ण स्वराज्य के स्थान पर एक अधिराज्य की कामना करते थे अर्थात देश पर नियंत्रण तो अंग्रेजों का ही रहे किन्तु शासन भारतीयों के द्वारा संचालित किया जाए 
➢ वे मानते थे कि यदि भारत को विकास करना है तो इंग्लैण्ड से वैधानिक तकनीक तथा औद्योगिकरण ग्रहण करना होगा, इस प्रकार वे भारत को पश्चिमी देशों की तरह विकसित देखना चाहते थे, उनके ये विचार उनको राष्ट्रवादी सिद्ध करते है 

 4. साधनों के प्रति दृष्टिकोण-

➢ गोखले उदारवादी होने के कारण साध्य और साधन दोनों की पवित्रता में विश्वास करते थे, अतः वे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए हिंसक साधनों के स्थान पर अहिंसक साधनों को अपनाए जाने पर बल देते थे, वे अंग्रेजों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए ज्ञापन, प्रार्थना, प्रतिनिधि मण्डल, अनशन जैसी नीतियों पर बल देते थे, वे स्वदेशी का भी समर्थन करते थे 

 5. स्वशासन सम्बन्धी विचार-

➢ गोखले जानते थे कि भारत राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र से काफी पिछड़ा हुआ है, यदि इन क्षेत्रों में भारत को समृद्ध न बनाया गया तो स्वतन्त्रता और स्वराज्य का कोई लाभ नहीं, इस प्रकार वे अंग्रेजों के सम्पर्क में रहकर पहले देश का आर्थिक और राजनीतिक उद्धार चाहते थे 

 6. क्रमिक सुधारों की राजनीति में विश्वास- 



➢ वे जानते थे कि भारत केवल घोषणाओं द्वारा स्वराज्य प्राप्त नहीं कर सकेगा अपितु इसकी प्राप्ति क्रमिक सुधारों के द्वारा ही हो सकती है, वे इस बात के प्रति सजग थे की भारत की जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति का अर्थ यह नहीं है कि भारत का राजनीतिक व आर्थिक विकास पूर्ण हो गया अपितु वे क्रमिक सुधारों में विश्वास करते थे 

 7. स्वदेशी का समर्थन, बहिष्कार का विरोध-

➢ उनकी मान्यता थी कि स्वदेशी के माध्यम से भारत की आर्थिक और आत्मनिर्भरता का मार्ग प्रशस्त होगा तथा भारतीय एक-दूसरे की समस्या को हल करने में सहयोग करेंगे, गोखले स्वदेशी की बात तो करते थे किन्तु वे बहिष्कार से सहमत नहीं थे, वे यह मानते थे कि बहिष्कार के द्वारा हम अंग्रेजों को उग्र बना देंगे 

8. व्यक्ति के अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का समर्थन-

➢ गोखले व्यक्ति के अधिकारों तथा स्वतन्त्रता के कट्टर समर्थक थे, गोखले ने जनता के अधिकारों को सीमित करने वाले कानूनों का कड़ा विरोध किया, उन्होंने जनता के विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और प्रेस की स्वतन्त्रता का भी दृढ़तापूर्वक समर्थन किया 

9. राजनीति का आध्यात्मीकरण-

➢ गोखले एक धार्मिक व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने धर्म को राजनीति में स्थान दिया तथा वे धर्म की आस्था तथा नैतिकता के नियमों से समन्वित राजनीति को ही राजनीति का दर्जा प्रदान करते थे 

 10. राष्ट्रीय एकता तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक-

➢ भारत की नैतिक और भौतिक दोनों ही दृष्टि से उन्नति की आकांक्षा गोखले के हृदय में थी, इस भावना को कार्यान्वित करने हेतु उन्होंने देश की सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों के मध्य एकता का सम्बन्ध आवश्यक माना, उन्होंने कहा कि इन्सान पहले भारतीय है फिर हिन्दू या मुस्लमान 

2. गोखले के आर्थिक विचार- 



➢ गोखले ने भारत में अपनायी जाने वाली आर्थिक नीतियों के दोषों का चित्रण किया, जनता से जितना राजस्व वसूल किया जाता है उसका अधिकांश हिस्सा भारतीय जनता के विकास में खर्च नहीं किया जाता और उसे एशिया में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार पर व्यय किया जा रहा है, गोखले के आर्थिक विचार इस प्रकार से है 

1. सैनिक व्यय में कमी का आग्रह-

➢ गोखले ने वैल्वी आयोग के समक्ष कहा कि भारत में कुल राजस्व और सैनिक व्यय का अनुपात विश्व के दूसरे देशों के सैनिक व्ययों की तुलना में अधिक है, शीतकाल में भी भारी भरकम सेना रखी जा रही है, अतः सैनिक व्यय में कमी करके रिजर्व सेना की आवश्यकता बतायी, वे सेना के भारतीयकरण के भी पक्षधर थे ताकि व्यय कम हो सके और भारतीयों को रोजगार भी मिल सके 

 2. जनता पर करों के बोझ को कम करने का आग्रह-

➢ गोखले का कहना था कि भारतीय जनता पर करों का बोझ ऐसी स्थिति में लादा जा रहा है जबकि यहां की जनता पहले से ही अनेक प्रकार के कष्टों और आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त है
➢ उन्होंने कर व्यवस्था में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिए- 1. अकाल के समय राजस्व की माफ़ी 2. आयकर में छूट की सीमा में वृद्धि 3. नमक पर कर की दरों में कमी 4. सूती कपड़े के उत्पादन पर कर की समाप्ति  

 3. मुक्त व्यापार की नीति के प्रति संशय-

➢ गोखले मुक्त व्यापार की नीति को भारत के लिए दोषपूर्ण मानते थे, उनका मानना था कि इस नीति के कारण भारत में लघु और कुटीर उद्योगों से जो माल तैयार किया जा रहा है, उसे विदेशी कारखानों में तैयार माल से प्रतियोगिता करनी पड़ेगी, इससे कुटीर व लघु उद्योग नष्ट हो जाएंगे, बेरोजगारी फैलेगी और लोगों को कृषि पर निर्भर होना पड़ेगा 

 4. ग्रामीण ऋण के प्रति चिन्ता-

➢ किसान गांवों में महाजन से ऋण लेकर ऋणग्रस्त थे, अतः इस समस्या को दूर करने के लिए उन्होंने कहा कि सहकारी साख समितियों की स्थापना की जाए, जिसके माध्यम से किसानों को ऋण सुविधाएं प्रदान की जाए 
➢ वे भारत को औद्योगिक देश के रूप में विकसित करना चाहते थे, औद्योगीकरण से भारतीय जनता के रोजगार में वृद्धि करने, राजस्व नीति को कल्याणकारी बनाने, प्रशासकीय व सैनिक व्ययों में कमी तथा जनता पर करों के बोझ में कमी करना चाहते थे 

 5. भारत में रेलों के विस्तार को प्राथमिकता देने का विरोध-

➢ उन्होंने रेल सेवाओं के विस्तार पर होने वाले भारी व्यय का भी विरोध किया, यद्यपि रेलों के कारण संचार व्यवस्था में सुधार हुआ है और अकालग्रस्त क्षेत्रों में खाद्यान्न पहुंचाने में भी रेलें बहुत उपयोगी रही है, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत में रेलों का विस्तार मानवोचित कारणों से नहीं, वरन भारत का आर्थिक शोषण करने के उद्देश्य से किया जा रहा है 
➢ रेलों की मदद से भारत के गांवों से अनाज और कच्चा माल बन्दरगाहों तक और वहां से विदेश भेजा जाता है तथा विदेशों से जो फैंसी माल आयात किया जाता है, उस अनावश्यक सामान को रेलों की सहायता से गांवों और कस्बों तक पहुंचाकर वहां उसे ऊंचे मूल्यों पर बेचा जाता है 

 3. राजनीति का आध्यात्मीकरण-

➢ गोखले साध्य और साधन दोनों की पवित्रता में विश्वास करते थे, उन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ़ इण्डिया सोसायटी’ की स्थापना की, जिसके माध्यम से राजनीति के आध्यात्मीकरण का प्रयास किया 
➢ गोखले ने अनुभव किया कि भारत का विकास तभी सम्भव है जब देश के प्रति समर्पित व्यक्तियों का एक ऐसा संगठन तैयार किया जाए जो जनता के विकास को सर्वाधिक महत्व प्रदान करे और उसके लिए यह सब कुछ बलिदान करने को तैयार हो 

 1. भारत सेवा समाज की स्थापना-

➢ वर्ष 1905 में गोखले ने देश के विकास हेतु भारत सेवा समाज की स्थापना की, इसकी स्थापना का कारण कांग्रेस का नवयुवकों में देश सेवा की भावना जागृत करने में विफलता थी, गोखले की आकांक्षा थी कि देशवासी धार्मिक भावना से प्रेरित होकर देश की सेवा के लिए तत्पर हो 

 2. सोसायटी की स्थापना के उद्देश्य-

➢ गोखले ने कहा कि इस संस्था के माध्यम से राजनीति का आध्यात्मीकरण किया जा सकता है, इसके उद्देश्य निम्न प्रकार थे-
➢ क. राजनीतिक प्रशिक्षण- गोखले का मानना था कि देश एक ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां प्रगति के ऐसे नवयुवकों की आवश्यकता है जो सच्ची सेवा भावना से युक्त हो और इस कार्य में अपने को समर्पित कर दे, ऐसे नवयुवकों को राजनीतिक प्रशिक्षण दिया जाए  
➢ ख. भारतीयता को स्वीकार करना- उन्होंने कहा कि लोगों के दिलों में यह बात बैठा दी जाए कि हम सबसे पहले भारतीय है और इसके बाद हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, ऐसा होने पर ही देश अपने गौरवशाली अतीत को प्राप्त कर सकेगा 
➢ ग. समर्पण और बलिदान की आवश्यकता पर बल- शिक्षा और संस्थाओं के माध्यम से देश में राजनीतिक जागरण हुआ है, लोगों में सार्वजनिक कार्यों के प्रति रूचि उत्पन्न हुयी, देशप्रेम की भावना जागृत हुयी, परन्तु राष्ट्र की उन्नति तभी सम्भव है जब कार्यकर्ता इस कार्य में अपना पूर्ण समर्पण, सहयोग और बलिदान कर दे 
➢ घ. ब्रिटिश सम्पर्क भारत के लिए वरदान- गोखले का विश्वास था कि ब्रिटिश सम्पर्क भारत के लिए दैवीय वरदान है, इनके नियंत्रण में रहकर ही भारत एक श्रेष्ठ जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा और स्वशासन की ओर कदम उठा सकेगा 

 3. कार्य-

➢ इस सोसायटी की स्थापना के माध्यम से निम्न कार्यों पर बल दिया गया-
➢ अ. जनता में विचारों और अपने उदाहरणों के माध्यम से देशप्रेम की भावना जागृत करना 
➢ ब. सार्वजनिक प्रश्नों की सहायता से जनता का ध्यान आकर्षित करना, उन्हें राजनीतिक शिक्षा प्राप्त कराना व संगठित होकर आन्दोलन करना 
➢ स. विभिन्न क्षेत्रों में समुदायों में सद्भावना को जन्म देना 
➢ द. महिलाओं और पिछड़े वर्गों की शिक्षा, वैज्ञानिक शिक्षा आदि के क्षेत्र में सहयोग प्रदान करना 
➢ च. औद्योगिक विकास के लिए प्रयत्नों को बल प्रदान करना 
➢ गोखले ने अनुभव किया कि सार्वजनिक जीवन सरल नहीं है, उसमें अनेक प्रकार की बाधाएं है, अतः उनकी यह मान्यता बन गयी कि इस क्षेत्र में उन्ही लोगों को आगे आना चाहिए जो देश सेवा के मार्ग से विचलित न हो 

 4. सात संकल्प-

➢ 1. विचारों में देश को सर्वोच्च स्थान, अपनी सर्वोतम सेवा क्षमताओं से देश सेवा करना 
➢ 2. देश सेवा की अवधि में व्यक्तिगत लाभ अर्जित न करना 
➢ 3. समस्त भारतीयों के प्रति देश सेवा का भाव रखना व सभी की उन्नति के कार्य करना 
➢ 4. सोसायटी द्वारा उपलब्ध साधनों से ही परिवार का भरण पोषण करना 
➢ 5. व्यक्तिगत जीवन पवित्र रखना 
➢ 6. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत झगड़ों में शामिल नहीं हुआ जाएगा 
➢ 7. सोसायटी के लक्ष्यों व हितों की पूर्ति में उत्साहपूर्वक कार्य करेगा 
➢ गोखले ने इस सोसायटी के उद्देश्यों के प्रति अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया था 

 4. गोखले का राजनीतिक वसीयतनामा-

➢ गोखले ने वर्ष 1915 में सुधारों का प्रारूप तैयार किया, इस प्रारूप को ही राजनीतिक वसीयतनामा कहा गया, गोखले की यह सुधार योजना भी अनेक क्रमिक सुधारों में विश्वास की नीति को व्यक्त करती है  
➢ इन प्रस्तावों में उन्होंने केन्द्रीय और प्रान्तीय दोनों ही स्तरों पर प्रशासनिक सुधारों की रूपरेखा प्रस्तुत की, इन प्रस्तावों का सारांश था कि गोखले प्रान्तीय शासन को भारत की केन्द्रीय सरकार और भारत सचिव के नियंत्रण से बाहर निकालकर प्रान्तीय प्रशासन के संचालन का भार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को सोंपना चाहते थे 

गोखले की सुधार योजना-

➢ गोखले ने जो सुधार योजना तैयार की उसका विवरण इस प्रकार है-

1. गवर्नर की नियुक्ति-

➢ गोखले ने प्रत्येक प्रान्त के प्रान्तीय शासन के अध्यक्ष के रूप में एक गवर्नर की नियुक्ति की बात कही जिसकी नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जाए 

2. व्यवस्थापिका सभा का गठन-

➢ गोखले के अनुसार प्रत्येक प्रान्त में एक व्यवस्थापिका सभा स्थापित की जाए जिसमें कम से कम 80 प्रतिशत सदस्य विभिन्न क्षेत्रों से निर्वाचित किए जाने चाहिए, मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों के लिए इसमें विशेष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था होनी चाहिए 

3. कार्यकारिणी परिषद-

➢ गोखले ने सुझाव दिया कि प्रत्येक प्रान्त में 6 सदस्यों वाली एक कार्यकारिणी परिषद होनी चाहिए, जिसमें कम से कम तीन सदस्य भारतीय होने चाहिए, इसमें भारतीय सिविल सेवा के सदस्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए 

4. कार्यकारिणी परिषद और व्यवस्थापिका में सम्बन्ध-

➢ इन दोनों के सम्बन्ध के विषय में गोखले संसदीय कार्यप्रणाली के पक्षधर थे अर्थात वे चाहते थे कि कार्यकारिणी परिषद अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उतरदायी हो, बजट पर व्यवस्थापिका की स्वीकृति अनिवार्य रूप से ली जाए 

 5. प्रान्तीय स्वायतता-

➢ गोखले चाहते थे कि प्रान्त आंतरिक प्रशासन व वितीय मामलों में केन्द्र सरकार के नियंत्रण से पूर्णतया मुक्त हो, उनका मानना था कि प्रान्तों को वितीय मामलों में स्वायतता प्रदान किए जाने के लिए यह आवश्यक है कि सिंचाई, वन, आबकारी, स्टाम्प रजिस्ट्रेशन और भू-राजस्व आदि पर कर लगाने का अधिकार प्रान्तों को ही हो, प्रान्त सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह एक निर्धारित अनुपात में राजस्व का एक हिस्सा अंशदान के रूप में प्रदान करे 

 6. प्रान्तीय प्रशासन का विकेन्द्रीयकरण-

➢ गोखले प्रान्तीय प्रशासन को विकेन्द्रित करने के पक्ष में थे जिसके लिए उन्होंने स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के विस्तार की बात कही, गांवों में पंचायतों की स्थापना पर बल दिया, कस्बों में नगर परिषद की बात कही 

7. इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का नाम परिवर्तन-

➢ गोखले ने कौंसिल का नाम बदलकर भारत की विधानसभा रखे जाने पर बल दिया तथा उसके विस्तार की आवश्यकता प्रतिपादित की, उन्होंने इसमें लगभग 100 सदस्यों की बात कही तथा यह भी कहा कि इस सभा को व्यापक शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए ताकि नीति निर्धारण में यह अपनी प्रभावशाली भूमिका प्रस्तुत कर सके 
➢ गोखले के इस सुधार कार्यक्रम का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि गोखले प्रान्तीय प्रशासन और केन्द्रीय प्रशासन में सुधारों के माध्यम से भारतीयों की भागीदारी को बढ़ाकर स्वशासन की ओर धीरे-धीरे कदम उठाना चाहते थे, यह बात उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है 

 5. स्वशासन पर गोखले के विचार-

➢ गोखले भारत में स्वशासन देखना चाहते थे तथा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने औपनिवेशिक स्वराज्य की शासन प्रणाली का समर्थन किया, उन्होंने स्वशासन का अर्थ बताते हुए कहा कि स्वशासन का अर्थ ब्रिटिश अभिकरण के स्थान पर भारतीय अभिकरण को प्रतिष्ठित करना, विधानपरिषदों का विस्तार एवं सुधार करते करते उन्हें वास्तविक निकाय बना देना तथा जनता को सामान्यतया अपने मामलों का प्रबन्ध स्वयं करने देना है

स्वशासन प्राप्त करने हेतु निम्नांकित चार प्रस्ताव गोखले ने रखे थे-



➢ 1. इंग्लैण्ड की उच्च कोटि की प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा भारत में होनी चाहिए 
➢ 2. भारतीयों को गवर्नरों की विधानपरिषदों तथा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए 
➢ 3. स्थानीय नगरपालिकाओं तथा स्वायत संस्थाओं को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए 
➢ 4. शासन की वितीय और कार्यकारी प्रशासन पर भारतीय लोगों का अधिक से अधिक नियंत्रण होना चाहिए 
➢ गोखले ने इन मांगों को मनवाने हेतु संवैधानिक साधनों के प्रयोग पर बल दिया, उदारवादी विचारधारा के होने के कारण ही वे अंग्रेजों की सहानुभूति से ही राजनीतिक सुधारों की मांग करते थे 

 6. शिक्षा पर गोखले के विचार- 

 1. निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के समर्थक-

➢ गोखले प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क बनाए जाने के पक्ष में थे, इसके लिए वे राज्य से यह अपेक्षा करते थे कि वह भारत के लिए प्रत्येक गांव में शिक्षा के साधन उपलब्ध करवाए 

 2. तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी विचार-

➢ गोखले तकनीकी शिक्षा के प्रसार को भारत में औद्योगिक व आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते थे, इस हेतु उन्होंने भारत में एक आयोग का गठन करने तथा तकनीकी संस्थाओं की स्थापना हेतु धन उपलब्ध करवाने की बात की 

3. उच्च शिक्षा तथा विश्वविद्यालयों की स्वायतता-

➢ गोखले उच्च शिक्षा के प्रसार हेतु विश्वविद्यालयों की स्वायतता के घोर समर्थक थे 

 4. पश्चिमी शिक्षा के समर्थक-

➢ गोखले पश्चिमी शिक्षा को भारतीय मस्तिष्क को पुराने विचारों की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए आवश्यक मानते थे, इसके विस्तार से भारत में उदार और लोकतान्त्रिक विचारों का विकास होगा 

 5. नारी शिक्षा के पक्षधर-

➢ वे नारी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे, उनका कहना था कि स्त्रियों के माध्यम से जागृति लाकर ही उन्हें अपमानजनक स्थिति से छुटकारा दिलाया जा सकता है 

 निष्कर्ष-

➢ गोखले एक सच्चे राष्ट्रवादी, उदारवादी देशभक्त थे, उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, गांधी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे 
➢ इस तरह इस महान विभूति ने अपने सम्पूर्ण जीवन में उत्कृष्ट देशभक्ति, देश के लिए कठोर परिश्रम करने की क्षमता, महान स्वार्थ त्याग करने की प्रेरणादायक मनोवृति तथा देश सेवा की अपूर्व लालसा आदि उच्च प्रवृतियों का प्रदर्शन किया तथा सम्पूर्ण जीवन इसी दिशा में लगा दिया
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