लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
परिचय-
➢ बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई,1856 को भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण जिले के रत्नागिरी में हुआ, तिलक के पिता एक शिक्षक तथा संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्होंने तिलक को संस्कृत तथा गणित की शिक्षा दिलाई, 1877 में बी.ए. करने के बाद कानून का अध्ययन किया
➢ तिलक ने अपने मित्रों चिपलूनकर, आगरकर तथा नामजोशी के साथ मिलकर 1880 ई. में पूना में न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना की, उन्होंने दो साप्ताहिक पत्रों मराठी भाषा में केसरी तथा अंग्रेजी भाषा में मराठा का प्रकाशन प्रारम्भ किया
➢ तिलक सर्वप्रथम कांग्रेस के 1889 के अधिवेशन में सम्मिलित हुए, 1905 में बंगाल विभाजन के बाद इन्होने अपना कार्यक्षेत्र पूरा भारत बना लिया, तिलक दो बार (1895 तथा 1897) में बम्बई विधानपरिषद के सदस्य चुने गए
➢ इनके द्वारा महाराष्ट्र में गणपति उत्सव और शिवाजी उत्सव प्रारम्भ किएगए, वर्ष 1896-97 के भीषण अकाल में इन्होने जनता की सहायता करने का प्रयास किया, बम्बई में प्लेग की बीमारी फ़ैल जाने पर प्लेग कमिश्नर रैंड ने दमनकारी उपाय अपनाए तब तिलक ने अपने पत्रों में रैंड की कड़ी कालोचना की
➢ वर्ष 1897 में प्लेग कमिश्नर रैंड की हत्या के लिए नवयुवकों को भड़काने के आरोप में अभियोग चलाकर 18 मास का कारावास मिला, केसरी पत्र में छपे इनके लेखों की वजह से वर्ष 1908 में इन्हें 6 वर्ष कारावास की सजा मिली
➢ वर्ष 1916-18 में एनिबिसेंट के साथ मिलकर होमरूल आन्दोलन में भाग लिया, वर्ष 1918 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए लेकिन शिरोल केस में इंग्लैण्ड चले जाने के कारण अध्यक्ष पद ग्रहण नहीं कर सके
➢ वर्ष 1897 के एकवर्षीय कारावास के दौरान “दि ओरियन” नामक ग्रन्थ की रचना की, वर्ष 1908 से 1914 तक के 6 वर्षीय कारावास के दौरान इन्होने “गीता रहस्य” तथा “दि आर्कटिक होम ऑफ़ दि वेदाज” नामक दो प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की
➢ 21 जुलाई,1920 को बम्बई में आकस्मिक बीमारी से इनका निधन हो गया
1. तिलक के स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा पर विचार-
अ. स्वदेशी-
➢ तिलक ने दयानन्द सरस्वती के स्वदेशी के विचार को ग्रहण किया और इसी को भारतीय आन्दोलन का एक प्रभावी हथियार बनाया, तिलक ने स्वदेशी को राष्ट्र की आत्मनिर्भरता, आत्म सम्मान और विदेशी प्रभाव से स्वतन्त्रता का एक प्रतीक बनाया, स्वदेशी की भावना का आन्दोलनात्मक पक्ष बहिष्कार था
➢ तिलक के स्वदेशी सम्बन्धी विचारों को दो भागों में बांटा जा सकता है-
1. आर्थिक पक्ष-
➢ अपने आर्थिक पक्ष में इन्होने भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण पर बल दिया, भारत की गिरती हुई आर्थिक दशा पर चिन्ता व्यक्त करते हुए तिलक ने वर्ष 1897 में कहा था कि भारत पहले उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में आत्मनिर्भर था तथा निर्यात करता था, लेकिन आज वह अनाज भी आयात करता है
➢ ब्रिटिश नीति के कारण ही हमारी औद्योगिक प्रक्रिया निष्क्रिय हो गयी है, बाजारों में विदेशी माल भरा पड़ा है, छोटे उद्योग विलुप्त हो गए है
➢ इस तरह तिलक ने स्वदेशी की ओर अपना झुकाव बढ़ा दिया और अपने स्वदेशी आन्दोलन के आर्थिक पक्ष को इस प्रकार प्रस्तुत किया
➢ क. तिलक पुनः भारतीय प्राचीन और परम्परागत स्थिति को प्राप्त करना चाहते थे, पूंजी और तकनीकी कौशल के अभाव को कम करने के लिए लघु और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना था, इससे- बेरोजगारी का समाधान होगा, स्वदेशी अपनाने से जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृत होगी, देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता आएगी
➢ ख. उनके अनुसार स्वदेशी कौशल एवं पूंजी के आधार पर किया गया औद्योगीकरण ही देश की आर्थिक आत्मनिर्भरता का माध्यम बन सकता है
2. नैतिक पक्ष-
➢ इस पक्ष में तिलक की मान्यता थी कि स्वदेशी को अपनाने से भारतीयों में स्वाभिमान का भाव विकसित होगा तथा जनता में आत्मनिर्भरता का विकास होगा, इससे राष्ट्रीय भावना भी बढ़ेगी
ब. बहिष्कार सम्बन्धी विचार-
➢ स्वदेशी आन्दोलन के परिणामस्वरूप बहिष्कार आन्दोलन को भी बढ़ावा मिला, इसके द्वारा भावनात्मक एवं आर्थिक दोनों स्तरों पर ब्रिटिश आधिपत्य से सक्रिय प्रतिरोध प्रकट होता था
➢ तिलक इसके द्वारा ब्रिटिश प्रशासन को ही निष्क्रिय करना चाहते थे, वे कहते थे कि आपके पास बहिष्कार रूपी प्रभावी हथियार है, थोड़े से अंग्रेजों द्वारा चलाया जाने वाला प्रशासन हमारे सहयोग से ही चलता है, इसका सहयोग कर हम स्वतः ही दमन के प्रति स्वेच्छापूर्ण समर्पण कर रहें है
➢ तिलक के बहिष्कार का ही संगठित पक्ष निष्क्रिय प्रतिरोध था जिसका मतलब था- शासन संचालन में जनता द्वारा सहयोग न देना, यह बहिष्कार का ही राजनीतिक रूपान्तर था, वे मानते थे कि प्रशासन उनके सहयोग के बिना कभी सफल नहीं हो सकता
➢ निष्क्रिय प्रतिरोध को वे एक साधन मानते थे जिसके द्वारा जनता हिंसक साधनों को अपनाए बिना ही स्वराज्य के लिए आन्दोलन चला सकती थी, बहिष्कार को तिलक ने अंग्रेजों के विरूद्ध एक प्रभावी लेकिन अहिंसक, आर्थिक व राजनीतिक अस्त्र माना था
स. राष्ट्रीय शिक्षा पर विचार-
➢ तिलक शिक्षा के प्रसार पर बहुत अधिक बल देते थे, उनका मानना था कि बिना शिक्षा के व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता, शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्तियों के व्यक्तित्व का निर्माण व विकास होता है
➢ इसी के फलस्वरूप व्यक्ति में स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के भाव जागृत होते है, तिलक ने पाश्चात्य शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार व प्रसार पर बल दिया
➢ तिलक के राष्ट्रीय शिक्षा सम्बन्धी विचार इस प्रकार है-
➢ 1. भारतीयों द्वारा भारतीय उद्देश्यों को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए
➢ 2. शिक्षा द्वारा ऐसे लोगों को प्रशिक्षित किया जाए जो राष्ट्रीय जागृति और राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए जनता को प्रेरित व संगठित कर सके
➢ 3. शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास और उसके चरित्र निर्माण का आधार बने
➢ 4. शिक्षा सस्ती और जनसामान्य के अनुकूल हो
➢ तिलक भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रकार की शिक्षा प्रणालियों के समन्वय को स्वीकार करते थे, साथ ही वे इसमें भारतीय संस्कृति और भारतीय चिन्तन परम्परा के मूल तत्वों का समावेश करना चाहते थे, इससे भारतीयों में आत्मविश्वास उत्पन्न होगा
राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली तथा पाठ्यक्रम-
➢ उन्होंने शिक्षा प्रणाली तथा पाठ्यक्रम इस प्रकार स्वीकार किया था-
➢ क. शिक्षा का माध्यम- तिलक का मानना था कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए, वे अंग्रेजी को पाठ्यक्रम में उपयोगी मानते थे लेकिन माध्यम के रूप में इसका विरोध करते थे
➢ ख. एक राष्ट्रभाषा- तिलक ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने पर बल दिया, देवनागरी लिपि को सभी भारतीय भाषाओँ की एक समान लिपि के रूप में स्वीकार किया
➢ ग. तकनीकी शिक्षा का समर्थन- तिलक के अनुसार- “तकनीकी शिक्षा के द्वारा देश में, औद्योगीकरण की संभावनाएं विकसित की जा सकती है तथा औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी वर्चस्व को समाप्त किया जा सकता है, इसी कारण उन्होंने तकनीकी शिक्षा को भारतीय हित में स्वीकार किया
➢ घ. राजनीतिक शिक्षा का समर्थन- राजनीतिक शिक्षा को तिलक ने अपने शिक्षा पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बताया, इससे वे राजनीतिक चेतना का छात्रों में विकास करना चाहते थे
➢ च. धार्मिक शिक्षा का समर्थन- धार्मिक शिक्षा भी तिलक के पाठ्यक्रम में शामिल थी, इसका कारण नैतिकता व संस्कृति प्रेम का लगाव का छात्रों में विकास करना था, इससे सुदृढ़ चरित्र निर्माण होता है, इसी कारण तिलक धार्मिक शिक्षा को शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल करते है
➢ इस तरह तिलक का स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा सम्बन्धी विचारों में भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के गौरव, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता व चरित्र निर्माण आदि में महत्वपूर्ण तत्वों को शामिल किया किया गया है
2. राजनीतिक विचार-
➢ तिलक ने स्वराज्य, स्वतन्त्रता, राज्य, व्यक्ति व समाज आदि के सम्बन्ध में अत्यंत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए
➢ 1. व्यक्ति स्वतन्त्रता पर विचार-
➢ तिलक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर किसी बाध्यकारी नियंत्रण को अनुचित मानते थे, वे व्यक्ति की आत्मा में परमात्मा का अंश मानते थे अतः व्यक्ति स्वतन्त्रता का निषेध परमात्मा की सता का निषेध है, स्वतन्त्रता के अभाव में व्यक्ति स्वयं का विकास विकास नहीं कर सकता
➢ 2. राज्य के प्रयोजन के सम्बन्ध में उपयोगितावादी मान्यता का खण्डन-
➢ बैंथम राज्य का प्रयोजन अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख बताता है किन्तु तिलक इस विचार से सहमत नहीं थे, वे अधिक से अधिक व्यक्तियों के भौतिक उत्थान की तुलना में व्यक्तियों के नैतिक व आध्यात्मिक उत्थान को महत्व देते थे
➢ वे मिल की इस विचारधारा से सहमत थे कि राज्य को व्यक्ति के नैतिक कल्याण को सुनिश्चित करने का प्रयत्न करना चाहिए, इस प्रकार तिलक अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के स्थान पर सभी व्यक्तियों के अधिकतम सुख की बात करते थे
➢ 3. स्वराज्य सम्बन्धी धारणा-
➢ स्वतन्त्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर रहूंगा, उनका मत था कि स्वराज्य मांगने से नहीं मिलता, इसके लिए त्याग, बलिदान और जनशक्ति का सहयोग आवश्यक है
➢ वे स्वराज्य को स्वतन्त्रता की पहली सीढ़ी मानते थे, आज तक पराधीन देश केवल अपने बाहुबल एवं आत्मबल से ही स्वराज्य को प्राप्त कर सके है है, अतः उन्होंने अपनी शक्ति का विकास करने के लिए जनता को प्रेरित किया
तिलक के स्वराज्य प्राप्ति के साधन-
➢ क. राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत करने के लिए सर्वप्रथम तिलक ने अपना माध्यम राष्ट्रीय शिक्षा को बनाया, शिक्षित नवयुवक ही स्वराज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष कर सकते है
➢ ख. उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति में स्वदेशी आन्दोलन को शक्तिशाली साधन के रूप में प्रयोग किया, उन्होंने स्वदेशी का खूब प्रचार किया ताकि भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सके
➢ ग. विदेशी बहिष्कार के लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर आन्दोलन किया, इनके द्वारा वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते रहे, कार्यालयों, कोर्टों और संस्थाओं के बहिष्कार द्वारा उन्होंने विदेशी सरकार को यह अहसास करवाया कि उन्हें शासन का अनिवार्य अंग मानना पड़ेगा
➢ घ. जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध की नीति अपनायी
➢ तिलक की स्वराज्य की अवधारणा निम्नांकित रूपों में स्पष्ट की जा सकती है-
अ. लोकतान्त्रिक स्वराज्य-
➢ तिलक का स्वराज्य जनहित के प्रति समर्पण की भावना पर आधारित था, वे शासन कार्यों पर जनता के नियंत्रण को स्वीकार करते थे, इसलिए प्रमुख विचारक टी.वी. पार्वते ने तिलक के स्वराज्य को लोकतान्त्रिक स्वराज्य की संज्ञा दी
ब. विषयों के निर्धारण का अधिकार-
➢ भारतीयों के समस्त विषयों प्रशासन, वित कानून निर्माण तथा न्याय सम्मत कार्यों पर भारतीयों का वास्तविक नियंत्रण होना चाहिए, वे मानते थे कि स्वराज्य की प्रगति और समाज के निर्माण के लक्ष्य को स्वराज्य के आधार पर ही प्राप्त किया जा सकता है
स. पूर्ण स्वाधीनता की आवश्यकता पर बल-
➢ तिलक ने स्पष्ट किया कि स्वराज्य से हमारा तात्पर्य हमारे मामलों का प्रबन्ध हमारे हाथों में होने से है, तिलक पूर्ण स्वाधीनता को भारतीय जनता के लिए जीवन के अन्त तक अनिवार्य मानते रहे
द. होमरूल लीग की स्थापना-
➢ तिलक ने एनिबिसेंट के साथ मिलकर होमरूल लोग की स्थापना की जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार की औपचारिक सता के अधीन भारत के लिए वास्तविक स्वराज्य प्राप्त करना था, वे इस तर्क से सहमत नहीं थे कि भारत के मामलों का प्रबन्ध भारतीय नहीं सम्भाल सकते
4. साधनों के प्रति दृष्टिकोण-
➢ तिलक उदारवादियों की नीति को राजनीतिक भिक्षावृति मानते थे, तिलक जनता के राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए शासकों की दया, सहृदयता और सहानुभूति पर निर्भर रहना उचित नहीं मानते थे, वे ऐसे साधन अपनाना चाहते थे जो अधिक प्रभावी, सक्रिय और सार्थक हो
5. राष्ट्रवाद-
➢ तिलक महान राष्ट्रवादी थे, वे मानते थे कि प्राचीन संस्कृति व मूल्यों को ही भारत में राष्ट्रवाद का मूल आधार बनाया जा सकता है, तिलक ने महाराष्ट्र में शिवाजी व गणपति महोत्सव के आयोजन का श्रीगणेश इसी उद्देश्य से किया था
➢ तिलक के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार भारत की प्राचीन संस्कृति और स्वस्थ परम्पराओं पर आधारित थे, धार्मिक समारोहों के माध्यम से वे शक्ति प्राप्त करना चाहते थे और राष्ट्रवाद के माध्यम से स्वराज्य की प्राप्ति करना चाहते थे, तिलक का राष्ट्रवाद भारत में सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित था, अतः उसे समग्र राष्ट्रवाद का नाम दिया गया
तिलक के राष्ट्रवाद की विशेषताएं-
➢ अ. सजीव व स्वस्थ परम्पराओं पर आधारित राष्ट्रवाद-
➢ तिलक का राष्ट्रवाद लोगों में नैतिक उत्साह और आत्मिक बल पैदा करता है, वह लोगों में गीता व वेदों के देश को उत्पन्न करता है, भारत की प्राचीन संस्कृति तथा सजीव परम्पराओं के माध्यम से तिलक भारत का पूर्ण निर्माण करना चाहते थे
➢ ब. महापुरुषों के जीवन व कार्यों पर आधारित राष्ट्रवाद-
➢ तिलक के राष्ट्रवाद के प्रेरणा स्रोत भारत के वीर पुरुष थे, वे शिवाजी के नाम से भारतीय नवयुवकों में सोई हुयी चेतना जगाना चाहते थे, तिलक को वर्ष 1905 के बंग-भंग के रूप में एक ऐसा शक्तिशाली हथियार मिल गया जिसके माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय शक्ति को संगठित किया और उदारवादी साधनों को निरर्थक बताया
➢ स, उत्सवों के आयोजन पर आधारित राष्ट्रवाद-
➢ तिलक का राष्ट्रवाद धार्मिक व सामाजिक उत्सवों की सामूहिक भावना पर आधारित था, उत्सव लोगों में उत्साह पैदा करते है, लोग एक स्थान पर एकत्रित होते है, जिससे राष्ट्रीय शक्ति संगठित होती है, तिलक ने महराष्ट्र में गणपति और शिवाजी उत्सवों को परिवार के दायरे से बाहर निकालकर उसे सार्वजनिक उत्सव में परिणित कर दिया
➢ द. राष्ट्रीय एकता पर आधारित राष्ट्रवाद-
➢ तिलक का राष्ट्रवाद हिन्दू-मुस्लिम एकता अर्थात राष्ट्रीय एकता पर आधारित था, तिलक न तो सांप्रदायिक थे, न ही वे हिन्दू-मुस्लिम विभाजन में विश्वास करते थे, वे तो राष्ट्रवाद के माध्यम से भारतीयों के ह्रदय में राष्ट्रीय एकता की भावना को जागृत करने का प्रयत्न करना चाहते थे
➢ य. हिंसक साधनों में अविश्वास-
➢ तिलक कभी भी हिंसक साधनों के माध्यम से स्वराज्य की प्राप्ति के पक्षधर नहीं थे, किन्तु गांधी की तरह अहिंसा के नैतिक आदर्शों से भी प्रेरित नहीं थे, कहा जा सकता है कि वे हिंसा के विरोधी थे किन्तु अहिंसा के पुजारी नहीं
6. तिलक के समाज सुधार सम्बन्धी विचार-
➢ तिलक का नाम उग्रवादी नीति का अनुसरण करने वालों में लिया जाता है, उन्होंने समाज सुधार की अपेक्षा राजनीति के क्षेत्र में अधिक कार्य किए, फिर भी उनके सामाजिक विचार इस प्रकार थे
➢ अ. अस्पृश्यता विरोधी- तिलक अस्पृश्यता का विरोध करते थे, वे ऊंच-नीच, जाति-पांति को नहीं मानते थे, उन्होंने कहा “अगर ईश्वर यह कहे कि उसी ने अस्पृश्यता को प्रारम्भ किया तो में उसे सत्य नहीं मानूंगा तथा ईश्वर को भी नहीं मानूंगा” इस प्रकार वे अस्पृश्यता के विरोधी थे
➢ ब. तिलक समाज सुधारों तथा अन्य सुधारों से पहले राजनीतिक स्वतन्त्रता चाहते थे
➢ स. तिलक प्रगतिशील समाज की स्थापना चाहते थे, उन्होंने बहुपत्नी प्रथा, बाल विवाह, मद्यपान तथा दहेज़ प्रथा का विरोध किया और विधवा विवाह को उचित ठहराया
➢ द. तिलक राष्ट्रवादी विचारक थे, वे भारत का वैचारिक पुनर्निर्माण पाश्चात्य विचारधारा पर स्थापित नहीं करना चाहते थे
➢ य. तिलक सामाजिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित मानते थे
➢ र. तिलक सामाजिक मसलों को राजनीतिक मसलों से अलग रखना चाहते थे, उनका मानना था कि सामाजिक भेद-भावना हमारे राजनीतिक आन्दोलन को ढीला बना देगी
➢ ल. तिलक समाज में सुधार जनभावना व जनसहमति से लाना चाहते थे, वे चाहते थे कि पहले सामाजिक वातावरण बनाया जाए तब सामाजिक सुधारों को अपनाया जाए तो सुधार वास्तव में प्रभावी होंगे
➢ इस तरह तिलक समाज सुधार के पक्षधर थे, समाज सुधार कानूनों को थोपकर नहीं किया जा सकता बल्कि जनसहमति से हो सकता है, उन्होंने कहा “समाज सुधार सहज और स्वाभाविक होने चाहिए ताकि असंतोष न फैले और सामाजिक संगठन कमजोर न हो”
तिलक : भारतीय अशान्ति के जनक-
➢ सर वेलेंटाइन शिरोल ने अपनी पुस्तक ‘Indian Unrest’ में तिलक को “भारतीय अशान्ति के जनक” की संज्ञा दी है और कहा है कि वे जनता में द्वैष फ़ैलाने वाले सबसे खतरनाक अग्रदूतों में से एक थे
➢ शिरोल का कहना था कि तिलक ने भारतीय जनता को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के लिए प्रेरित किया, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि तिलक ने भारतीय जनता को सशस्त्र विद्रोह के लिए नहीं बल्कि शान्तिपूर्ण जन आन्दोलन के लिए प्रेरित किया